हरिद्वार।
महर्षि दयानन्द के विचारों से प्रभावित होकर आर्य समाज का कालान्तर में तीर्थ स्थापित करने वाले महात्मा मुंशीराम लाहौर से चलकर ज्वालापुर रेलवे स्टेशन पर अपने कुछ सहयोगियों के साथ उतरते हैं। वहां से बैलगाड़ी के माध्यम से वेद के मंत्र के अनुरूप गुरुकुल स्थापित करने के लिए तत्कालीन बिजनौर राजवाड़े के अधीन आने वाले उस भू—भाग में जाते हैं। जिस स्थान को आज पुण्यभूमि कांगड़ी गांव हरिद्वार से जाना जाता है। उस स्थान पर उतरते ही महात्मा मुंशीराम को एक बिजनौर विरासत के मुंशी अमन जी मिलते हैं। मुंशी अमन महात्मा मुंशीराम से उनकी देशभक्ति और भारतीय वैदिक शिक्षा पद्धति से इतने प्रभावित होते हैं कि महात्मा जी को एक गुरुकुल स्थापित करने के लिए अपने विरासत की भूमि इस मध्य देने का प्रस्ताव रखते हैं। महात्मा मुंशीराम सहज इस प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए कि उनको पता था कि भूमि तो मिल गयी अब ऊपर की आति और इस सभी के लिए विद्यार्थी इस स्थान पर कैसे आयेंगे। किन्तु द्रढ संकल्पी महात्मा मुंशीराम विचार करते है कि जब इतनी बड़ी भूमि मुझे मेरे इस कार्य हेतु मुंशी अमन ने दी है तो मैं भी तो मुंशीराम हूँ। मुझे भी अब अपना सब कुछ देना होगा। इस संकल्प के साथ अपने बच्चों से बिना विचार विमर्श किए अपनी सर्वस्व सम्पत्ति बेचकर गुरुकुल के भवन निर्माण में लगा देते हैं। अपने बच्चों से क्षमा मांगते हैं और कहते है कि बच्चों मैंने तुम्हारे अधिकारों की संपत्ति तुम्हें बिना पूछे बेचकर इस गुरुकुल को समर्पित कर दी है। बच्चे उनको कहते हैं कि पिताजी आपने तो सिर्फ संपत्ति की बात कर रहे हैं। हम तो इस संकल्प के साथ स्वयं भी समर्पित हैं और इसी समर्पण भाव से महात्मा मुंशीराम के दोनों पुत्र हरीश चन्द्र व इन्द्र इस गुरुकुल के प्रथम विद्यार्थी के तौर पर प्रवेश लेते हैं। वह भी वहां जहां पर चारों तरफ जंगली जानवरों व डाकुओं का भय हो। लेकिन अपने पिता के संकल्प के साथ खड़े होने के साहस ने आज उसी गुरुकुल को गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार का गौरव बना दिया है। यह वही स्थान है जहां पर आर्य प्रतिनिधि पंजाब के नाम से महात्मा मुंशीराम ने प्राप्त जमीनों को गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के वास्ते नामित कराया। यह वहीं स्थान है जहां पर उस क्षेत्र का डाकू सुल्ताना डाका डालने हेतु आता है, वहां एक व्यक्ति लालटेन लेकर गुरुकुल में अध्ययन हेतु आए छात्रों की जंगली जानवरों से सुरक्षा हेतु रात्रिकालीन पहरा दे रहा होता है। डाकू रूकता है पूछता है कि तुम कौन हो महात्मा मुंशी बताते है कि मैं तो अपने देश के भावी भविष्य की रक्षा/सुरक्षा कर रहा हूं। डाकू सारे प्रकरण को समझने के बाद महात्मा मुंशीराम को चांदी की अशर्फी देने की पेशकश करता है। किन्तु स्वामी जी यह कहते हुए ठुकरा देते है कि मैं लूटी हुई कोई भी वस्तु इस गुरुकुल में नहीं लगाऊं गा, यदि कुछ देना है तो मेहनत करके दो। यह वही स्थान है जब मोहनदास करमचन्द गाँधी तीसरी बार पहुंचे तो उस समय महात्मा मुंशीराम संन्यास ले चुके थे। मोहनदास करमचन्द गांधी ने उन्हें महात्मा के नाम से पुकारा तो उन्होंने कहा कि मैं तो अब सन्यासी हो गया हूँ। मैंने सन्यासी के पूर्ण संस्कार कर लिए हैं। अब मैं महात्मा नहीं रहा हूँ। अब मेरी यह उपाधि आपके नाम के साथ रहेगी और उसी क्षण से मोहनदास करमचन्द गांधी ‘महात्मा’ के नाम से विख्यात हो गए। यह वही स्थान है जहां पर ब्रिटिश जैम्स फोर्ड व लेडी जैम्स पोर्ट खुफिया रिपोर्ट के आधार पर गए और महात्मा मुंशीराम को कहा कि अरे महात्मा जी जरा अपने बम बनाने की फैक्ट्री तो दिखा दो। महात्मा मुंशीराम ने उन्हें अपने बम बनाने की फैक्ट्री दिखाते हेतु ब्रह्मचारियों के बीच में ले गए और जेम्स फोर्ड को बोला कि यह ब्रह्मचारी ही मेरे बम हैं। मैं इनको देश की संस्कृति, देश की रक्षा आदि में इतना दक्ष कर दुंगा कि इनको देश के स्वाभिमान के अतिरित्त कुछ नहीं सूझेगा। यह वहीं स्थान है जहां अंग्रेज शासकों ने स्वामी जी को एक लाख रूपये भारतीय मुद्रा में प्रतिवर्ष देने का प्रस्ताव रखा। किन्तु महात्मा मुंशीराम ने उनके प्रस्ताव को सहजता से ठुकरा दिया और कहा कि मैं तो यहां देश के लिए बलिदान देने वाले भक्तों को तैयार कर रहा हूँ जो कि आप ही को यहां से भगाकर छोडगे। जिस दिन देश स्वतंत्र होगा, उस दिन अपने देश से अनुदान लूंगा। यही वजह है कि वर्तमान गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में 1947 से विभिन्न प्रकारों का अनुदान प्राप्त किया और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग बनने के बाद शत प्रतिशत अनुदान प्राप्त हो रहा है। यहां पर जयचन्द विद्यालंकार जैसे विद्वान निकले, जिनको शहीद भगत सिंह अपना गुरु मानते थे। इस प्रकार के अपने स्मरण है जिन्होंने इस स्थान पर अपने देश के लिए बलिदान देने की शपथ ली। इसी वजह से यह उल्लेखनीय है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सहभागिता आर्य समाज से समर्पित परिवार रहे, तथा अनेक एेसे साक्ष्य है कि आर्य समाज के वह बलिदान व स्वतंत्रता सेनानी यहीं से प्रभावित होकर अपने देश के लिए न्यौछावर रहे हैं।
कई वर्षों के पश्चात महात्मा मुंशीराम ने वैदिक परम्पराओं के अनुरूप संस्कारों के तहत सन्यास ग्रहण कर लिया। अपने नाम के आगे महात्मा शब्द को उन्होंने अपने सबसे निकटतम साथी गांधी जी को सौंप दिया। वहीं गुरुकुल की बागडोर अपने दूसरे पुत्र इन्द्र को सौंप दी और स्वयं वहां से प्रस्थान कर गए। अब उन्होंने अपना एक ही लक्ष्य स्थापित किया कि वह देश की स्वतंत्रता के लिए समर्पित रहेंगे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण सन 19१९ के कांग्रेस अधिवेशन जो कि अमृतसर में हुआ था उसमें देखने को मिलता है। जहां स्वामी श्रद्धानंद कांग्रेस की स्वतंत्रता नीतियों से सहमत नहीं थे। जिस कारण वह स्वतंत्र रूप से अपने लक्ष्य की ओर बढ रहे थे। उसी समय जलियांवाला काण्ड ने पूरे देश को हिला दिया। बड$े—बड$े भारतीय नेता इस कांड की वजह से अंग्रेज सत्ता से डरने लगे। कोई भी कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता करने को आगे नहीं आ रहा था। ऐसे समय में स्वामी जी ने देश की एकता को सर्वोच्च रखते हुए कांग्रेस की नीतियों से सहमत न होते हुए भी पंडित मोतीलाल नेहरू व समकक्ष स्वतंत्रता सेनानियों के आग्रह को स्वीकार करते हुए 1919 के अधिवेशन की अध्यक्षता की। और यही कारण है कि इस सन 19१९ के अधिवेशन के पश्चात जलियांवाला काण्ड का भय भारतीयों से दूर हो गया व आन्दोलनों ने एक बहुत बड़ा चाहे वह किसान आंदोलन हो, चाहे वह सैनिक आन्दोलन हो, चाहे वह बुद्धिजीवियों का आंदोलन हो, चाहे वह नागा सन्यासियों के आन्दोलन पूरे भारत में फैल गया। शहीदे भगत सिंह के ट्रायल का वैधानिक दस्तावेज गुरुकुल कांगड$ी के पुरातत्व संग्रहालय में विद्यमान है। उसका हिन्दी रूपान्तरण के पश्चात् यह स्पष्ट प्रमाण प्राप्त होता है कि स्वामी श्रद्धानंद ने स्वतंत्रता के आंदोलन में कितनी तीखी नीति अपनायी। उस ट्रायल में अनेक ऐसे उल्लेख है जो स्वतंत्रता सेनानियों से सम्बंधित है जिसमें स्वामी श्रद्धानंद द्वारा निर्धारित शिक्षण संस्थाएं, आर्य समाज के स्थल तथा अनेक एेसे अस्पताल जो स्वामी श्रद्धानंद के विचारों के अनुरूप चलते थे। उनसे कितनी सहायता स्वतंत्रता सेनानियों को मिलती थी।
पूण्य भूमि स्वामी श्रद्धानंद की कर्मस्थली ही नहीं वरन देश को दिशा देने वाला स्थान है। एेसे अनेक उदाहरण है कि यहां पर आने वाला व्यक्ति को सही दिशा प्राप्त होती है। यह वही स्थान है कि स्वामी जी के प्रस्थान करने के पश्चात प्रति विपदाआें से भी ग्रसित रहा या कहा जाए अहमिन्द्रो न पराजिम्य मैं अपराजेय इंद्र हूँ। स्वामी जी द्वारा स्थापित पूण्य भूमि का 8 प्रतिशत भूभाग/ भवन 1924 की बाढ में बह गया। किन्तु स्वामी जी के द्वारा स्थापित व द्रढ संकल्प के तहत स्थापित गुरुकुल के ब्रह्मचारियों को मायापुर स्थित हरिराम आर्य इण्टर कालेज लाया गया। कुछ समय पश्चात आर्यदानियों के सहयोग से एक विस्तृत भू—भाग पर गुरुकुल कांगड$ी विश्वविद्यालय की स्थापना कर दी गयी। किन्तु वह पूण्यभूमि आज भी इस विश्वविद्यालय के वैदिक तीर्थ के रूप में अज्ञेय है। अब पुन: यह जरूरत है कि देश व विदेश के सभी आर्यजन महानुभाव चाहे जिन्होंने यहां शिक्षा ग्रहण की हो, शिक्षण कार्य किया हो, कर्मचारी के रूप में संबध हो या अन्य किसी रूप में परोक्ष व अपरोक्ष रूप से सम्मिलित हो वह सभी आगे आए। महात्मा मुंशीराम द्वारा स्थापित गुरुकुल के पुन:द्धार में अपना सहयोग दें। ताकि स्वामी श्रद्धानंद जी की तपस्थली जो प्रत्येक आर्यजन का तीर्थ है। उसे उसी रूप में लाया जाए और देश के प्रत्येक नागरिक को यहां आकर यह आभास हो कि हमारी स्वतंत्रता कितनी कठिनाइयों के बाद हमें मिली और उसके पीछे इस महात्मा, इस स्वामी का कितना बड$ा समर्पण उसका ही नहीं उसके परिवार का भी है।