हरिद्वार/प्रशांत शर्मा।
पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत लोकसभा चुनाव के दौरान येन केन प्रकारेण अपने बेटे विरेन्द्र रावत को हरिद्वार सीट से टिकट दिलाने में कामयाब तो हो गये लेकिन हरिद्वार में भारी सक्रियता के बावजूद वे अपने ही कार्यकर्ताओं की नब्ज सही से टटोल नही पाए। जिसका खामियाजा कांग्रेस की जीत की भारी अटकलो के बावजूद हार के रूप में सामने आ ही गया।
हरिद्वार लोकसभा सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की लगातार सक्रियता संसदीय क्षेत्र के लोगो को न केवल भा रही थी बल्कि कई संकटापन्न परिस्थितियों में हरीश रावत की सक्रियता ने उनके प्रति काफी विश्वास व्यक्त किया। स्थानीय जनता का भी यह मानना था कि हरीश रावत स्वयं हरिद्वार से चुनाव लडेगे तो जीत निश्चित है, लेकिन कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व द्वारा उन्हें अल्मोडा से प्रत्याशी बनाए जाने के नाम पर वे न केवल बिदक गये थे, बल्कि हरिद्वार से अपने बेटे के लिए टिकट का जुगाड करने में लग गये। स्थानीय कांग्रेसियों ने विरेन्द्र रावत के नाम पर न केवल असहमति जताई बल्कि यहां तक कह दिया कि स्थानीय जनता विरेन्द्र रावत के चेहरे तक से परिचित नही है। ऐसे में यह सीट कांग्रेस को निकालना मुश्किल होगा। पार्टी के ही कई शीर्ष लोगो ने विरेन्द्र के नाम पर स्थानीय और बाहरी का मुददा भी उठा दिया। लेकिन हरीश रावत किसी तरह विरेन्द्र रावत के नाम से टिकट ले ही आये। परिणाम स्वरूप कांग्रेस के कई दिग्गज जो रोजाना हरीश रावत के नाम का जाप करने वाले उनके प्रमुख प्रवक्ता राजेश रस्तोगी, डा. सत्यनारायण शर्मा, संजय महंत, पुरूषोत्तम शर्मा, रामविशाल देव आदि ने न केवल कांग्रेस से किनारा किया। बल्कि चुनाव के ऐन वक्त पर भाजपा का दामन संभाल लिया। इस दौरान लक्सर व रूडकी क्षेत्र के भी कई बडे कांग्रेसी नेता किनारा कर गये। जाहिर है कि एेसे में हरीश रावत, अनुपमा रावत, मनीष कर्णवाल, राजीव चौधरी आदि को कड़ी मश्क्कत करनी पडी। शहर में खुद को कांग्रेस का अलंबरदार कहने वाले नेता चुनाव के दौरान दिखाई तो जरूर दिये लेकिन वह मन से कांग्रेस के लिए काम नही कर पाए। जबकि स्थानीय नेता पीठ पीछे कांग्रेस के पक्ष में न बोलकर भाजपा प्रत्याशी के लिए अप्रत्यक्ष रूप से सपोर्ट में लगे रहे। परिणाम सबके सामने है। देखना यह भी होगा कि अपनी पत्नी रेणुका रावत और बेटे विरेन्द्र रावत की हार के बावजूद हरीश रावत हरिद्वार में अब कितना सक्रिय रह सकते है या नही..ञ्